बच्चों की चहल-पहल और खासकर भाई-बहन के लड़ाई-झगड़े के बिना अकसर परिवार भी बेजान से लगते हैं। घर भी मानों इस शोरगुल के इतने आदी हो जाते हैं कि, कहीं वो टॉम एंड जेरी, घर पर न हों, तो इंतजार में मायूस दीवारें भी एक-दूसरे को ताकती रहती हैं। जब भाई-बहन आपस में लड़ते हैं, तो उस नोक-झोंक में अकसर बेटियां जीत जाती हैं, क्योंकि उनके गुडली नेचर ने पहले ही पूरे परिवार को अपने वश में करके रखा होता है। और बेटे तो हर मां-बाप की ताकत हैं, जो बिना कुछ कहे और बिना प्यार जताए, हमेशा हमारे दिल के सबसे नजदीक हो जाते हैं। बेटे दुआओं से मिलते हैं, लेकिन बेटियां भी नसीब वालों के घरों में पैदा होती हैं। अपनी औलाद से प्यार, आखिर किसे नहीं होता, लेकिन बेटियों का मोह, तो उन घरों में भी हमेशा रह जाता है, जो उन्हें किसी की अमानत समझ कर सालों उनकी ख्वाहिशें पूरी करने में गुजार देते हैं। एक मां, अपनी बेटी को हमेशा एक बार्बी डॉल की तरह सजाती-संवारती है, मानों उसमें खुद का बचपन जी रही हो। वहीं एक पिता, बेटी की हर डिमांड को खुशी से पूरा कर देता है, यह सोच कर, कि समाज की रीत में कुछ साल बाद, वो बेगानी हो जाएगी।
मोहल्ले में किसी गुड़िया के पांवों की पायल की झनकार सुनकर मैं, अक्सर अपनी नटखट बहन को याद करके मुस्कुरा देता हूं। आज जब वो, रक्षा बंधन और भाई दूज पर मेरी सलामती की इच्छा से मेरे घर आती है, तो जिम्मेदारी को निभा रही एक पत्नी और बहू के लिबाज़ में, वो मासूमियत और छोटे-बड़े सेक्रिफाइज मुझे याद आते हैं, जो उसने कभी मेरे लिए किए थे। कभी पॉकेट मनी कम पड़ गई, तो अपने जेब खर्च से कुछ रुपए बचाकर मुझे दे दिया करती थी। कभी, लेट नाइट घर पहुंचा, तो चोरी-छिपे घर में एंट्री दिलाकर, पापा की फटकार से मुझे बचा लेती थी। किसी और के घर को संभालने वाली, वो लड़की, आज भी अपनी मां या पिता की थोड़ी सी तबीयत बिगड़ जाने पर रो देती है, तो सोचता हूं कैसे यह दिलेर औरत, इस जगह आकर टूट जाती है। मैं अकसर अपनी बेफिक्र फितरत में, या यूं कहें कि मां-पापा से प्यार जताने का हम, लड़कों का तरीका थोड़ा अलग होता है, जो चेहरे पर हमेशा नहीं दिखता। लेकिन मेरी बहन, बेटी होने के अपने फर्ज में, उनके लिए कभी उस अपनेपन को जताने से नहीं चूकती थी। सुबह-शाम माता-पिता को गले लगाकर, प्यार और कन्सर्न जताया करती थी और हर लड़के की तरह मेरा, औरा (Aura) ही घर में ऐसा बन गया था, मानो एक इमोशनलेस पर्सन। इमोशन लेस तो नहीं, लेकिन स्ट्रांग होने का पाठ मैने भी बचपन में ही पढ़ लिया था। मुझे, उस वक्त, वो सब उसका ड्रामा लगता था। लेकिन आज जब, वो किसी और के घर की है, तब भी हमारी फिक्र में उसकी आंखों से बहते आंसू, अकसर उसकी बेबाकी और मेरी बेफिक्री का मुझे आइना दिखा देते हैं।
कभी एक खिलौने की तरह, कोख में एक बेटी के जिस्म को टुकड़े होते देखने का दर्द, एक मां के अलावा शायद ही कोई और समझता है। कभी रास्तों या स्कूल से किडनैप हुई बच्चियों की चीखों से सुनसान सड़कें भी गूंज उठती हैं, और हवाएं भी उस वक्त नम हो जाती हैं, जब कोई रेप विक्टिम कहीं किसी कोने में पड़े मदद की गुहार लगाती है। सड़कों पर उतरे लोगों को देखकर, उन बच्चियों को बेशक एक तसल्ली होती होगी, लेकिन उनके दर्द को सहलाने उमड़ी भीड़ की कैंडल मार्च में, हजारों-लाखों मोमबत्तियों की जगमगाहट भी उस अंधेरे को कम नहीं कर पाती। आखिर उनका कसूर क्या है- लड़की होना। दूसरों की बेटियों को गंदी नजरों से देखने वाले आदमी, अपनी मां-बहन का सामना कैसे कर पाते होंगे? ऐसी वारदातें इतनी शर्मनाक हैं, कि मुझे लड़का होने पर शर्मिंदगी महसूस होती है। पिता की मल्लिका और मां की जान है -बेटी। हर भाई की लाइफ का एक प्रिशियस हिस्सा हैं- बहनें। लेकिन आज भी हमारी सोसायटी का एक बहुत बड़ा हिस्सा लड़कियों को बोझ या लस्ट का एक मटिरीअल समझता है। लेकिन द रेवोल्यूशन- देशभक्त हिंदुस्तानी उन लोगों का शुक्रगुजार है, जो बेटियों को घर का उजाला समझते हैं। बेटियां वो रोशनी हैं, जिनके आने से घर जगमगा उठता है, जिम्मेदारी और प्यार का वो भंडार हैं, जो मायके और ससुराल दोनों को संभाल लेता है, और वो शक्ति हैं, जो जरूरत पड़ने पर चट्टान की तरह, हर हालात में आपके साथ खड़ी होती हैं।